राष्ट्रपति का बेटा हो या हो मजदूर किसान की संतान सबकी शिक्षा एक समान

Friday, December 21, 2018

सबको समान शिक्षा की बात - डॉ. अनुज लुगुन

अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच ने आगामी 18 फरवरी 2019 को सबको समान शिक्षा के लिए ‘हुंकार रैली’ का आह्वान किया है. इसके लिए शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आंदोलन की कार्ययोजना बनायी है. 
इसमें देशभर के शिक्षा, शिक्षक और छात्र संगठन शामिल हो रहे हैं. इस आंदोलन की भूमिका में इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला और शिक्षा के निजीकरण का विरोध है. इसके लिए लगातार प्रत्येक राज्य में अभियान चल रहा है. 
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अगस्त 2015 में ऐतिहासिक फैसला देते हुए निर्देश दिया था कि सरकार सुनिश्चित करे कि राजकीय खजाने या सार्वजनिक निधियों से किसी तरह की अतिरिक्त आमदनी, लाभ या वेतन पानेवाले सरकारी कर्मचारी, अर्द्धकर्मचारी, स्थानीय निकाय जनप्रतिनिधि, जिसमें सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री को भी शामिल किया गया, न्यायिक कर्मचारी और बाकी सभी, प्राथमिक शिक्षा पाने के उम्र के अपने बच्चों को सरकारी बेसिक शिक्षा बोर्ड द्वारा चलाये जा रहे प्राथमिक स्कूलों में ही भेजें. अदालत ने इस बात की ओर ध्यान दिया कि आजादी के पैंसठ सालों के बाद आज भी सरकारी स्कूल बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं, क्योंकि नीति-निर्धारक अपने बच्चों को संपन्न निजी स्कूलों में भेजते हैं और इसलिए सरकारी स्कूलों में उनकी कोई खास रुचि नहीं है. 
अदालत ने सरकार को छह महीने के अंदर फैसले को लागू करने का निर्देश दिया, और यह भी कहा कि शर्तों को न माननेवालों को सजा दी जाये. शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने और समाज में समानता के सिद्धांत को स्थापित करने का यह ऐतिहासिक फैसला था.
यद्यपि यह फैसला आज तक लागू नहीं किया गया, लेकिन इसने इस बहस को उठाया कि क्या सबको समान शिक्षा के बिना हम अपने समाज को मजबूत बना सकते हैं? वास्तविकता तो यह है कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी शिक्षा की बुनियाद को मजबूत करने की दिशा में ठोस कदम उठाये ही नहीं गये. कोठारी कमीशन द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च किये जाने का परामर्श आज तक लागू नहीं हुआ. 
आज प्राथमिक शिक्षा को कई खुले हाथों में अराजक तरीके से छोड़ दिया गया है. सरकारी, अर्द्धसरकारी, गैरसरकारी, कॉरपोरेट, धार्मिक न्यासों के स्कूल इत्यादि ऐसे कई बिखरे हुए संस्थान हैं, जिनके शिक्षा का विचार और लक्ष्य भिन्न-भिन्न है. ऐसी संस्थाओं में भाषा का माध्यम, फीस के ढांचे से लेकर पाठ्यक्रम भी अस्पष्ट है. अपने समाज की नर्सरी को हमने यूं ही गैर-जिम्मेदार तरीके से छोड़ दिया है.           
अदालत ने सरकारी स्कूलों को ‘आम लोगों का स्कूल’ कहा है. आज आम लोगों के स्कूल की वही स्थिति है, जो स्थिति आम लोगों की है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में करीब सवा करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करते हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार तो हमारे देश में पांच करोड़ बाल मजदूर हैं. यानी पांच करोड़ बच्चे स्कूल से बाहर हैं. 
दूसरी ओर चालीस प्रतिशत बच्चे सातवीं-आठवीं तक की पढ़ाई के बाद स्कूल छोड़ देते हैं. ये सरकारी आंकड़े हैं, जिसे सरकारी भाषा में ‘ड्राप आउट’ कहा जाता है. शिक्षाविद अनिल सदगोपाल इसे ‘पुश आउट’ मानते हैं. ‘ड्राप आउट’ में सरकार अभिभावकों को दोषी मानती है, जबकि ‘पुश आउट’ के लिए सरकार जिम्मेदार है. यानी गलत सरकारी नीतियों की वजह से बच्चे स्कूल छोड़ने को मजबूर होते हैं. 
उनका मानना है कि हमारी स्कूली व्यवस्था में ही इतनी खामियां हैं कि बच्चे मनोवैज्ञानिक रूप से स्कूल में टिक ही नहीं पाते. खास तौर पर दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक बच्चों के स्कूल छोड़ने की संख्या बहुत ज्यादा है. उनके साथ होनेवाला भाषाई और सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव इसका एक बड़ा कारण है. 
आम लोगों के लिए बने स्कूल आम लोगों की जिंदगी को बर्बाद कर रही है. संभ्रांत और मध्यवर्ग ने तो अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से बाहर निकाल लिया है. सबको समान शिक्षा न देने की व्यवस्था के कारण यह सब हो रहा है.
उदारीकरण ने शिक्षा का बहुत बड़ा बाजार खड़ा कर दिया है. कहा जा रहा है कि जिसके पास जितना पैसा है, उसे उतनी शिक्षा मिलेगी. कोई भी निम्न आय वर्ग का परिवार किसी निजी स्कूल में अपने दो बच्चों की पढ़ाई का खर्च वहन कर ही नहीं सकता है. 
जितनी तेजी से निजी स्कूल खड़े हुए हैं, उतनी ही तेजी से कोचिंग संस्थान भी पैदा हुए हैं. जब दसवीं या बारहवीं के बाद कोचिंग ही जाना है, तो फिर गुणवत्ता कैसी? शिक्षा का यह व्यवसायीकरण आम नागरिकों को शिक्षा से बाहर कर रहा है. 
केंद्रीय विश्वविद्यालयों को भी अब अनुदान की जगह ऋण लेने के लिए और खुद से फंड जुटाने के लिए दबाव डाला जा रहा है. इसके लिए हायर एजुकेशन फंडिंग एजेंसी (एचइएफए) का गठन किया गया है. 
इन सबका सीधा असर समाज के आम नागरिकों पर पड़ेगा. इससे न केवल फंड जुटाने के लिए छात्रों की फीस में बढ़ोतरी की जा रही है, बल्कि मानविकी और सामान्य विज्ञान जैसे विषय को भी विश्वविद्यालयों से बाहर करने की योजना चल रही है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. 
ऐसे में इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला उम्मीद देता है कि इसे न सिर्फ प्राथमिक स्तर पर, बल्कि उच्च शिक्षाओं में भी पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए. शिक्षाविदों का मानना है कि बिना सामाजिक भागीदारी के शिक्षा को बाजार के चंगुल से नहीं निकाला जा सकता. शिक्षा अधिकार के कानून के बावजूद शिक्षा के लिए बड़ी लड़ाई बाकी है.

डॉ अनुज लुगुन 
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

प्रभात खबर के ई पेपर से साभार 

Friday, November 16, 2018

देश की प्राथमिकता अपने नागरिकों को शिक्षा और स्वास्थ प्रदान करना होता है कि पूंजीपतियों को लाभ पहुँचाना ?


शिक्षा का अधिकार एक आधा अधूरा अधिकार या कहे तो कही न कही शिक्षा को आम लोगों से दूर करने वाला अधिकार है. उसको तो सरकार और न्यायलय लागु करवाने में असमर्थ हो जा रहे है.



Wednesday, September 26, 2018

इधर मैकाले उधर गाँधी - सुनील






अभियान को बल देने वाली खबर पर ये काम कैसे बेहतर तरीके से हो इसके लिए भी सचेत रहने की जरुरत है


ये खबर थोड़ा सकून और अपने अभियान को बल देती है। जिन भी साथियों का ग्राम पंचायतों में काम हो वह ग्राम सभा / प्रधान, स्कूल के साथ बातचीत करके पैसे का दुरुपयोग होने से रोके और उन पैसों का सार्थक उपयोग हो स्कूल, के लिए, बच्चों के लिए, गांव के लिए, देश के लिए।





मिर्जामुराद बाज़ार में आयोजित एक देश समान शिक्षा अभियान द्वारा हस्ताक्षर अभियान एवं पोस्टर प्रदर्शनी की खबर

Tuesday, September 25, 2018

एक देश समान शिक्षा अभियान द्वारा उप जिला अधिकारी, राजातालाब तहसील को प्राथमिक एवं पूर्व माध्यमिक विद्यालय हरसोस को संसाधन युक्त करने के लिए ज्ञापन दिया गया.



समान शिक्षा की मांग हेतु हस्ताक्षर अभियान एवं पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन मिर्जामुराद, वाराणसी में

एक देश समान शिक्षा अभियान (One Nation Equal Education Campaign) द्वारा मिर्जामुराद बाजार में सभी के लिए समान शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देते हुए पोस्टर प्रदर्शनी’ और हस्ताक्षर अभियान का आयोजन किया गया. पोस्टर प्रदर्शनी में विभिन्न चित्रोंस्लोगनकविताओं और नारों के माध्यम से सभी के लिए समान एवं गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के अवसर की उपलब्धता की आवश्यकता को दर्शाया गया था.    
इस अवसर पर अभियान के साथी राजकुमार पटेल के कहा कि शिक्षा के बढ़ते बाजारीकरण के कारण आज समाज का एक बड़ा हिस्सा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित हो रहा हैकोई स्पष्ट नीति न होने के कारण सरकारी विद्यालयों की स्थिति क्रमशः दयनीय होती जा रही है. सरकारी स्कूलों को प्रायः बदहाल स्थिति में छोड़ दिया गया है यह स्थिति अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. 
युवा किसान नेता योगिराज पटेल ने कहा कि जिस प्रकार नवोदय विद्यालयों और केन्द्रीय विद्यालयों में प्रवेश के लिए अभिभावक उत्सुकता दिखाते हैं उसी प्रकार सरकारी प्राथमिक स्कूलों की भी गुणवत्ता में अपेक्षित सुधार होने पर बच्चों के प्रवेश के लिए लोगों का झुकाव होगा. सरकारी स्कूलों में उच्च स्तरीय संसाधन की व्यवस्था की जानी चाहिए. 
अभियान की तरफ से जारी पोस्टरों एवं हस्ताक्षर अभियान के द्वारा मांग की गयी कि माननीय उच्च न्यायालय के दिनांक 18 अगस्त 2015 का अनुपालन सुनिश्चित कराया जाय  और इसे देश के स्तर तक लागू किया जाय. शिक्षा का बजट बढाया जाय. परिषदीय/सरकारी स्कूलों में उच्च स्तर के संसाधन उपलब्ध कराये जांय.सभी सांसद एवं विधायक अपनी निधि से अनिवार्य रूप से कम से कम 30 प्रतिशत धनराशि अपने क्षेत्र के परिषदीय/सरकारी विद्यालयों के संसाधन को उच्च स्तरीय बनाने में व्यय करें. सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी दूर की जाय, शिक्षकों से किसी भी प्रकार का गैर शैक्षणिक कार्य न कराया जाय तथा प्रत्येक सरकारी विद्यालय पर अनिवार्य रूप से लिपिक, परिचारकचौकीदार और सफाई कर्मी की नियुक्ति हो और सभी के लिए समान शिक्षा की नीति  पूरे देश में व्यवहारिक रूप से लागू की जाय







समान शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य और सभी के लिए रोजगार के लिए जन संवाद.

साथियों जन संवाद के द्वारा आम जन से समान शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य और सभी के लिए रोजगार के लिए एक संवाद करने के लिए. ये संवाद इसलिए भी जरुरी ...